दशहरे पर जब लोग रावण दहन करके आते हैं तो वे एक-दूसरे को शमी के पत्ते देते हैं। इसे सोना पत्ति भी कहते हैं। उन पत्तों को स्वर्ण मुद्राओं के प्रतीक के रूप में एक दूसरे को देते हैं। इस दिन शमी के पेड़ की पूजा भी होती है। आखिर शमी के पत्ते क्यों एक-दूसरे को देते हैं? क्या है इसके पीछे की पौराणिक कथा और कहानी? आओ जानते हैं कि क्या है इसके पीछे की परंपरा।
1. पहली पौराणिक कथा : कहते हैं कि लंका से विजयी होकर जब राम अयोध्या लौटे थे तो उन्होंने लोगों को स्वर्ण दिया था। इसीके प्रतीक रूप में दशहरे पर खास तौर से सोना-चांदी के रूप में शमी की पत्त‍ियां बांटी जाती हैं, क्योंकि हर कोई स्वर्ण नहीं दे सकता। जब शमी के पत्ते नहीं मिलते हैं तो कुछ लोग खेजड़ी के वृक्ष के पत्ते भी बांटते हैं जिन्हें सोना पत्ति कहते हैं।

2. दूसरी पौराणिक कथा : महर्षि वर्तन्तु ने अपने शिष्य कौत्स से दक्षिणा में 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं मांग ली। कौत्स के लिए इतनी स्वर्ण मुद्राएं देता संभव नहीं था जब उसने अपने राजा रघु से इस संबंध में निवेदन किया। राज रघु के पास भी इतनी स्वर्ण मुद्राएं नहीं थी, लेकिन उन्होंने कौत्स को वचन दिया कि मैं तुम्हें यह स्वर्ण मुद्राएं दूंगा। फिर उन्होंने सोचा कि क्यों न स्वर्ग पर आक्रमण करके कुबेर का खजाना हासिल कर लिया जाए। राजा रघु अपने वचन के पक्के थे और वे शक्तिशाली भी थे।

जब इंद्र को यह बात पता चली की राजा रघु स्वर्ग पर आक्रमण करने वाले हैं और वह भी स्वर्ण मुद्राओं के लिए तो इंद्र ने राजा रघु से कहा कि आपको आक्रमण करने की जरूरत नहीं मैं स्वर्ण मुद्राएं देते हूं। तब देवराज इंद्र ने शमी वृक्ष के माध्यम से राजा रघु के राज्य में स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा करा दी। इसी के साथ शमी के वक्त की उपयोगिता बढ़ गई।