पर्यावरणीय चिंता के साथ हुआ 'उखड़ती सांसें' का विमोचन:सुसंस्कृति परिहार
धीरज जॉनसन
दमोह:अगर एक नजर हम पर्यावरण संकट पर डालें तो स्पष्ट है कि विश्व की करीब एक चौथायी जमीन बंजर हो चुकी है और यही रफ्तार रही तो सूखा प्रभावित क्षेत्र की करीब 70 प्रतिशत जमीन कुछ ही समय में बंजर हो जायेगी। यह खतरा इतना भयावह है कि इससे विश्व के 100 देशों की एक अरब से ज्यादा आबादी का जीवन संकट में पड़ जायेगा। पर्वतों से विश्व की आधी आबादी को पानी मिलता है। हिमखण्डों के पिघलने, जंगलों की कटाई और भूमि के गलत इस्तेमाल के चलते पर्वतों का पर्यावरण तन्त्र खतरे में है। विश्व का आधे से अधिक समुद्र तटीय पर्यावरण तन्त्र गड़बड़ा चुका है। यह गड़बड़ी यूरोप में 80 प्रतिशत और एशिया में 70 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है।जो सबसे बड़ी चिंता और चुनौती के रूप में आज सामने है। उपभोक्ता वादी संस्कृति इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं।इस चिंता में लेखक सहज और सरल रूप से इनको अपने लेखन में सतत शामिल कर रहे हैं।
इसी क्रम में दमोह की प्रकृति प्रेमी संवेदनशील कवियत्री आभा भारती की कविताओं का संग्रह "उखड़ती सांसें" का विमोचन नगर के प्रबुद्ध जनों के बीच घटाटोप मेघों के साए में सम्पन्न हुआ। विशिष्ट वक्ता पत्रकार, साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता नरेन्द्र दुबे ने इस अवसर पर कहा कि कवियत्री एवं छायाकार आभा जी ने मेघों की जो कलात्मक छवि चित्रों में उभारी है वे आज यहां मेहरबान हैं और हम उख़ड़ती सांसें पर चर्चा कर रहे हैं। प्रकृति का मेघ महत्व पूर्ण भाग हैं जिन पर कवियित्री का जबरदस्त प्रभाव है वे उनकी रचनाओं में बराबर मौजूद हैं। उनके इस संकलन में वृक्षों पर ही मूलतःकेंद्रित उनकी रचनाएं हैं जिनमें वसुंधरा की गहन चिंता अभिव्यक्त हुई है।छोटी छोटी रचनाओं में वे बड़ी बातें कहने की क्षमता रखती है।वे पौधों के मानवीयकरण में माहिर हैं।उन्होंने कहा कि विमोचित कृति में रचनाकार की पर्यावरणीय चेतना और प्रकृति के प्रति उनकी गहरी संवेदनशीलता अभिव्यक्त हुई है । वे बहुमुखी और बहुविध प्रतिभा की धनी हैं ।
समारोह के मुख्य अतिथि ख्यातिलब्ध साहित्यकार डॉ श्यामसुन्दर दुबे थे अपने विलक्षण बौद्धिक वक्तव्य में प्रकृति, संस्कृति और सामयिक चुनौतियों पर गहन गंभीर विमर्श किया तथा प्रकृति चिंतन की आध्यात्मिक परम्परा पर संदर्भों सहित गंभीर विवेचना की। आपने आभा भारती की कविताओं के दार्शनिक पक्ष को रेखांकित करते हुए उनकी कविताओं का वैशिष्ट्य निरुपित किया।अध्यक्षता वयोवृद्ध साहित्यकार और जैन दर्शन के विद्वान डॉ भागचंद्र जैन भागेन्दु ने की ।अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ भागेन्दु ने कवियत्री के यशस्वी पिता स्वर्गीय पंडित महेन्द्र कुमार जी जैन न्यायाचार्य के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए कवियत्री की समृद्ध विरासत को बताया। आपने कहा कि उक्त काव्य संकलन संग्रह के श्रेय और प्रेय की प्रतिध्वनि है कि क्यों ना हम स्वयं को प्रकृति की चेतना, गतिशीलता,रागात्मकता में प्रवाहित कर दें और अनुभूतियों के गहन संस्कार में उतरकर तन,मन और आत्मा से जुड़ जायेंगे और प्राप्त कर लें शांति,सुकून और स्वस्थ जीवन।आभा भारती का यह भावप्रवण संकलन पर्यावरणीय चेतना और आत्मावलोकन के संदर्भ सहज ही सुलभ कराता है।आभा भारती के पुत्र कर्नल अभिषेक भारती ने आभाजी की रचनाधर्मिता पर कुछ संस्मरणों के ज़रिए उनके अपरिमित लेखन की बात की जो अभी कई डायरियों में लिखे पड़े हैं ।कार्यक्रम के कुशल संचालन का दायित्व राजीव अयाची ने किया था।इस दौरान उन्होंने संकलन से एक रचना का पाठ भी किया।
विदित हो लेखिका आभा भारती ने काशी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में तथा सागर विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम ए की शिक्षा प्राप्त की है।आभा भारती एक सुख्यात लेखिका हैं उन्होंने कविता, कहानियों और ललित निबंध के क्षेत्र में भी काफी काम किया है उनके दो संकलन 'धरती की धड़कन से' और 'रजा के रंग' आ चुके हैं । फोटोग्राफी के क्षेत्र में आभा जी विशेष प्रतिभा रखती हैं उनके "बादलों की फोटो: कविताओं संग" की कई प्रदर्शनियां जहांगीर आर्ट गैलरी मुंबई ,भारत भवन भोपाल ,जबलपुर जैसे महत्वपूर्ण नगरों में लग चुकी हैं उन्हें कादंबरी,एवं परिधि पुरस्कार से सम्मानित भी किया जा चुका है।
वस्तुत: आभा जी प्रतिभा के कई केंद्र हैं किंतु वे सोते जागते नींद में सिर्फ पेड़ों के इर्द-गिर्द ही रहती हैं इसलिए उनके पहले संकलन धरती की धड़कन में भी पेड़ पौधों की आहटें बराबर बनी हुई है उन्होंने ख़ुद अपने घर के सामने लोहिया उद्यान में जिस तरह पेड़ पौधों की लगन से सेवा की वहीं से उनकी पीड़ा को भी अंगीकार किया है।नये संकलन में तो इतने पौधों का ज़िक्र हुआ है जिन्हें आज के लोग जानते पहचानते भी नहीं है। इसलिए उनकी पहली रचना चेतावनी से शुरू होती जब वे चिंतित होकर ये कहती हैं" ये हरा भरा संसार उजड़ भी सकता है-"--और अंत होता है अंतर्दृष्टि पर। मानों वे कहना चाह रही हैं अपनी दृष्टि खोलो और जगती की पीड़ा के मर्म को समझो।उखड़ती सांसें शीर्षक कविता गमला संस्कृति और पेड़ों को उखाड़ कर लगाने पर चोट करती हैं।वे अपेक्षा रखती हैं प्रकृति ने जहां जिसे रोपा है वहां उसका अधिकार है बढ़ने का ।उससे छेड़छाड़ नहीं होना चाहिए। इसमें विस्थापन की तकलीफ़ नज़र आती है।
कुल मिलाकर उड़ती सांसें के ज़रिए कवियत्री के दर्द और मूल भावना को समझना आज की ज़रूरत है क्योंकि पौधे ही हैं जो मानव ही नहीं तमाम जीव-जगत की सांसें हैं उनकी रक्षा हमारा पुनीत कर्तव्य है।इस चिंता में सबको शरीक होने की ज़रूरत है । मानव जीवन का अस्तित्व प्रकृति की गोद में पलता -बढ़ता है |इसे उपभोक्तावादी संस्कृति के दोहन से हर हाल में बचाना ही होगा।