सनातन धर्म में गंगा को मां का दर्जा दिया गया है. ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को हर वर्ष गंगा दशहरा का पावन पर्व मनाया जाता है.

इस दिन लोग गंगा नदी में स्नान कर दान-पुण्य करते हैं. धार्मिक मान्यता है कि ऐसा करने से हर तरह के पाप कट जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है. मां गंगा के आशीर्वाद से जीवन में सुख-शांति का आगमन होता है.

आरती का आशय ही धारण करने से है. संतान की सत-आचरण एवं असत-आचरण सबको सहती, स्वीकारने वाली जननी की तरह मां गंगा का जीवन यद्यपि सहज और सरल नहीं रहा है, लेकिन हर परिस्थितियों में वह निर्मलता, शीतलता का परिवेश बनाते सम-विषम भूमि और पर्वतों से अविरल प्रवाहित इसलिए होती रहती है, क्योंकि वह प्रतिकूलताओं के परिवार के मुखिया भगवान शंकर की अर्धांगिनी जो ठहरी.

कब हुआ मां गंगा का अवतरण

मां गंगा का अवतरण ही उस काल में हुआ, जब राजा सगर के वंशज श्रापित थे. मुक्ति के लिए देवनदी का उन्हें अवलंबन चाहिए था. कथा है कि सगर के शापित वंशजों की मुक्ति के लिए उसी कुल के राजा भगीरथ कठोर तपस्या करते हैं. भगीरथ कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि लोकजीवन के हितार्थ विषमताओं से संघर्ष करने वाली व्यवस्था का द्योतक है. किसी एक नहीं, बल्कि साठ हजार तड़पते पूर्वजों के लिए तपस्या का आशय ही है कि एक पूरे समाज की विषमताओं को समता में बदलने के लिए किया गया आंदोलन. इस लोक-कल्याण के भावों पर मुग्ध होते हैं महादेव. असुरों के राजा बलि के अहंकार को मस्तिष्क के चिंतन से रसातल में करते ही भगवान विष्णु का रूप विराट होता है और ढाई पग में एक पग ब्रह्मलोक जाता है. ब्रह्मलोक जाते समय विष्णु के चरण पर अंतरिक्ष में विद्यमान विषाणुओं द्वारा हमला भी होता है. ये पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले जीवाणुओं की प्रवृत्ति ही होती है संकमण फैलाना. संक्रमित और घायल चरण को ब्रह्मलोक में देवमंडल द्वारा प्रक्षालित तथा संक्रमण-मुक्त किया जाता है. ब्रह्मलोक में जल का आधिक्य होने पर ब्रह्मा अपने कमंडल में ले लेते हैं. ब्रह्मा का कमंडल है, तो जल का विषाणु-तत्व तो नष्ट होना ही था. इस तरह मां गंगा का अस्तित्व ब्रह्मलोक में ही विषमताओं को दूर करने से ही होता है. यही एक विषमता नहीं, बल्कि उन्हें महादेव के कोप की विषमता झेलनी पड़ी. भगीरथ की तपस्या पर गंगा को पृथ्वी पर आने का आदेश होता है. वह आना इसलिए नहीं चाहती थी कि पृथ्वी पर गंगा में विषैले मन और तन के साथ अन्यान्य प्रदूषणों को उन्हें झेलना होगा. इनकार कर दिया और स्पष्ट किया कि पृथ्वी पर यदि गयी, तो हाहाकार मचा देंगी. इस पर उन्हें भगीरथ पर रीझे महादेव के क्रोध की तपिश झेलनी पड़ी.

शिव जी के गंगा को क्यों जटाओं में रखा था

शिव-तांडव स्त्रोत के अनुसार, शिव की जटाओं में गंगा अग्नि ज्वाला की तरह धक-धक-धक कर रही. क्रोध की आग की तरह निकल रही हैं. शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में उलझा लिया और भगीरथ के साथ जाने की आज्ञा दी. यह दिन भी प्रतिकूलताओं वाला था. ज्येष्ठ माह की तपिश का दिन. शुक्ल पक्ष की दशमी. जल के त्राहि-त्राहि का वक्त, लेकिन वह दिन था मंगलवार. यानी पृथ्वी पर मंगल करने के लिए विष्णु के ढाई पग के एवज में गंगोत्री से गंगासागर तक ढाई हजार किमी तक यात्रा के संकल्प का दिन, जिसे मां गंगा स्वीकार करती हैं. मां गंगा ने शिव की जटा से निकलने के पूर्व सहस्त्रों ऋषियों के साथ भगीरथ को देखती हैं, तो वे निश्चिंत भी होती हैं कि नेतृत्व के चिंतन में पवित्रता रहे तो किसी भी प्रदूषण को वह अपनी अविरलता से दूर कर लेंगी.

एक कथा देवी-पुराण की यह भी है कि भगवान शंकर के विवाह में अनेक विसंगतियां आयीं. विवाह की जानकारी देने शंकरजी विष्णुजी के पास गये, तो भगवान विष्णु ने वातावरण को सरस बनाने के लिए कुछ गीत-संगीत सुनाने के लिए कहा. इस पर शंकर जी ने गीत गाना शुरू किया तब विष्णुजी आनंद में इतने द्रवीभूत हुए कि वैकुंठ में जलप्लावन होने लगा, जिसे ब्रह्मा ने अपने कमंडल में एकत्र कर लिया.

कथा से स्पष्ट है कि तनाव के दौर में सांगीतिक माधुर्य की योजना आवश्यक है. मन प्रसन्न होता है तो तन का कष्ट झेलने की सामर्थ्य पैदा होती है. शरीर के रसायन एवं हार्मोंस अनुकूल होते हैं. अगर वास्तविकता देखी जाये, तो धरती प्रसन्नता और विषमताओं दोनों की धरती है. सत्ययुग में विष्णु नारद के श्राप से ग्रसित होते हैं, तो त्रेता में श्रीराम अपनी ही विमाता की कुटिल-नीति से कष्ट पाते हैं और द्वापर में श्रीकृष्ण की वाल्यावस्था मामा कंस को चुनौती देने और आगे चलकर कुरुक्षेत्र में आपसी परिजनों के महाभारत में मारकाट कराने के लिए केंद्रीकृत भूमिका के निर्वहन को भी दर्शाती है.

यह तो तय है कि जीवन द्वंद्व भरा है. मधुवन-सी खुशबू के साथ पतझड़ में सिर्फ पेड़ों का कंकाल दिखता है. वर्तमान दौर भी भगीरथ के पूर्वजों के शाप की तरह का ही युग है. पूर्वजों की तृप्ति के लिए भटकते भगीरथ की तरह चतुर्दिक जनसैलाब के रूप में कोने-कोने में भटकते लोगों के समूह को क्या कहा जाये? जनता के समूह में ही जनार्दन का रूप देखने का ऋषियों का चिंतन रहा है. लग रहा कि यह विष्णु जी का वही विराट पहला पग है, जिसे ढाई पग चलना है. ढाई माह से चलते ये पग यह भी दर्शाता है कि गंगा की तरह विसंगतियों से लड़ते हुए जब पुनः व्यवस्थित होंगे जनसमूह के ये पग तो अदभुत 'पग-पुराण' बन जायेगा.