दिव्य बसंत, नैतिकता का पतन शिखर से...हमने देखा है- सुरेंद्र मिश्र 

(रायसेन से हरीश मिश्र की रिपोर्ट)
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रायसेन। साहित्यिक गतिविधियाें की बांझ माटी रायसेन में  बसंत उत्सव पर निराला जी के काव्य धर्म को जिंदा रखने वाले निराला इंसान,
दूर क्षितिज पर चमकते सितारे फक्कड़ कवि स्व. सुरेंद्र मिश्र बसंत पंचमी पर बहुत याद आते हैं। वह बसंत पंचमी पर निराला परिवार के माध्यम से निराला उत्सव ( विराट कवि सम्मेलन ) आयोजित करते थे।

उन्होंने साहित्य जगत के सूर्य कवि सूर्य कांत त्रिपाठी निराला पर लिखा था।

*साहित्य में दिनमान बनकर*
*कर रहा जग में उजाला*
*जन्मदिन है आज जिसका*
*नाम है उसका निराला।*


    उनकी सादगी, सरलता,  निश्छलता में अपनत्व था। वे लेखन में प्रखर थे, व्यवहार में विनम्र। स्व. मिश्र जी के निराले व्यक्तित्व पर लिखते हुए सुखद अनुभूति हो रही है। निराला जी फक्कड़, निर्भीक, निडर मिश्र जी भी फक्कड़ , निर्भीक, निडर। निराला जी साहित्य जगत के ध्रुव तारे, मिश्र जी दूर क्षितिज के रोशन सितारे।

सरस्वती के वरद् पुत्र मिश्र जी जानते थे। ब्रह्मास्त्र में संहार शक्ति और शब्दास्त्र में सृजन की शक्ति उत्पन्न होती है। तभी उन्होंने लिखा-

*हवा, धूल, आंधी में पलकर*
*शब्द शक्ति बन जाता है।*
*स्वर की अनल शिखा में उठकर*
*नाद ब्रह्म हो जाता है।*

वह कहते थे जीवन तो जानवर भी जी लेता है। बात तब है जब आप अपने राष्ट्र धर्म का कर्ज चुकाएं। उन्होंने लिखा-

*माटी से जुड़कर लिखना ही,*
*सृजन धर्म कहलाता है,*
*जिसमें गंध नहीं माटी की,*
*मां का दूध लजाता है,*
*लिखकर मां का क़र्ज़ चुकाना*
*हमने देखा है।*
*दूर क्षितिज तम के आगे नीली रेखा है*

 जब मिश्र जी मेरे घर पर आयोजित काव्य गोष्ठी में मेरे पूज्य पिताजी स्व. पंडित रमाशंकर मिश्र, स्व. प्रेम दुबे, स्व. राधेश्याम वशिष्ठ, स्व. जे पी  शुक्ला को अपनी काव्य रचना सुनाते
मैं पास बैठकर उनकी मौलिक कविताओं को सुनाता। मैं उनके विचारों को सुनकर स्तब्ध रह जाता था। वह ऊंचे स्वर में काव्य पाठ करते-

*सिर मंदिर में,*
*धड़ मस्जिद में,*
*खून मिला गुरु द्वारे में।*
*लटकी देह क्रास पर देखी*
*गिरजा की दीवारों में।*
*सदियों से इंसान बिखरते*
*किसने देखा है।*
*दूर क्षितिज पर तम के*
*आगे नीली रेखा है।*

उन्हें रुपए पैसों का मोह नहीं था, अपने मित्रों के सहयोग से निराला उत्सव आयोजित करते। शेष राशि का भुगतान स्वयं करते। एक बार  निराला उत्सव में राशि कम पड़ गई। स्व प्रेम दुबे ने सुझाव दिया नगर के कुछ धनाढ्य व्यापारियों से सहयोग ले लें। तब मिश्र जी ने कहा-

*ऊंचे महल अटारी देखे,*
*इनमें बड़े भिखारी देखे,*
*इन्सानों के इस जंगल में,*
*आदमखोर शिकारी देखे,*
*नैतिकता का पतन शिखर से*
*हमने देखा है।*
*दूर क्षितिज तम के आगे नीली रेखा है।*

साधु प्रकृति, संत स्वभाव परन्तु अपने विचारों के प्रति उतने ही दृढ़ निराला परिवार के कवि सुरेन्द्र मिश्र जी की आत्मा जिस शरीर में रही उस शरीर ने शब्द चेतना का कार्य किया, शरीर को छोड़कर जो शरीर प्राप्त किया होगा तो वह भी राष्ट्र कार्य में प्रवृत्त होगी या ईश्वर ने उस अंश को अपने में समाहित किया होगा। इस पर मुझे पूरा विश्वास है। बसंत उत्सव पर श्रद्धा पूर्वक नतमस्तक होकर उस दिव्य आत्मा को प्रणाम।

न्यूज़ सोर्स : Harish mishra